"ठेले वाली गिलहरी"। "राम काज" में सहयोग का मनोभाव।।

    

अयोध्या में 22 जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के उपलक्ष्य में, मैंने भी अपनी कॉलोनी में एक सूक्ष्म पूजन कार्यक्रम करने का मन बनाया मेरे साथ, मेरी ही कॉलोनी के सज्जन व्यक्ति भी पूरे उत्साह से सम्मिलित हुए

तय कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर, हम दोनों अगले दिन के कार्यक्रम हेतु प्रसाद की व्यवस्था करने के लिए, बाजार से जरूरी सामान खरीदने गए जब मैं केले खरीदने को एक ठेले वाले दुकानदार के पास गया और उससे बड़ी संख्या में केले मांगे, तो वह समझ गया कि मैं अगले दिन के कार्यक्रम के लिए प्रसाद हेतु इतने अधिक केले मांग रहा हूँ
सारे केले देने के बाद, उसनें "पांच केले" मुझे अलग से दिए, और बोला कि भगवान श्री राम के कार्य हेतु मेरा भी एक छोटा सहयोग ले लीजिये

मैंने उसे ऐसा करने से मना किया और कहा  – तुम अपना नुकसान क्यूँ कर रहे हो ? इसकी कोई आवश्यकता नहीं है
लेकिन वह विनय भाव से मुझसे बोला – “मुझे मना मत करिए साहब, भगवान राम के कार्य के लिए मेरी ओर से भी, मेरा यह छोटा सा सहयोग ले लीजिये, मैं भी उनकी पूजा में भागीदार बनना चाहता हूँ।"
मैं चाह कर भी उसे मना नहीं कर सका; और उसने मुझे "पांच केले" अलग से दे ही दिए।

मैं उसके मनोभाव से भाव विभोर हो गया, और इस लेख को लिखते समय भी हूँ 
उस व्यक्ति का मनोभाव ठीक वैसा ही था, जैसा कि उस गिलहरी का था, जो समुद्र पर भगवान श्री राम की सेना द्वारा बनाये जा रहे पुल के निर्माण में, अपना भी सहयोग प्रदान करने में लगी थी 
यद्यपि उसके कार्य बड़े सूक्ष्म प्रभावों वाले थे, लेकिन वह उस कार्य में अपने सामर्थ्य के अनुसार अपना सहयोग इस मनोभाव के साथ दे रही थी, कि यह “भगवान श्री राम का कार्य है”।
यहाँ इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आपके सहयोग का प्रभाव कितना है अथवा कितना था; सबसे महत्वपूर्ण चीज, जो वाकई में मायने रखती है, वह यह, कि आपके कार्यों के पीछे आपके भाव क्या हैं।
त्रेता युग में भगवान श्री राम के कार्यों में अनेकों अनेक सदाचारी लोग एवं जीव - जंतु, अपने - अपने सामर्थ्य के अनुसार अपना सहयोग देने में लगे हुए थे; ऐसा हम सब पढ़ते और सुनते आये हैं। परन्तु वर्तमान में, ठीक वैसी ही मनोदशा से उपजे सहयोग की भावना का दूसरों में साक्षात्कार करने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ। यह मेरे लिए एक अमूल्य अनुभव था।

जय सियाराम.....




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